Sunday, 26 December 2021

जनकवि कोदूराम दलित : प्रतिनिधि रचनाएँ

 










परिचय 

नाम - श्री कोदूराम "दलित"

जन्म स्थान - ग्राम टिकरी (अर्जुन्दा)

जन्मतिथि - 05 मार्च 1910

निधन - 28 सितम्बर 1967

कर्म क्षेत्र - दुर्ग

व्यवसाय - प्रधान पाठक

मूल स्वर - हास्य व्यंग्य, राष्ट्रीय भावना

विधा - हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार रखते हुए छन्दबद्ध कविताओं का सृजन

प्रसारण - पचास के दशक के प्रारंभ से आकाशवाणी नागपुर, भोपाल, इंदौर, रायपुर से कविताओं का प्रसारण, अनेक मंचों व समारोहों में काव्यपाठ। वे मंच लूटने वाले कवि थे।

प्रकाशन - 

(1) सियानी गोठ (छत्तीसगढ़ी कुण्डलिया संग्रह

(2) बहुजन हिताय बहुजन सुखाय (छत्तीसगढ़ी और हिंदी में प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह)

(3) छन्नर छन्नर पैरी बाजे (छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह)

इसके अलावा देश के प्रतिष्ठित अखबारों, अनेक पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित


अन्य - बाल साहित्य, नाटक, प्रहसन, कहानी लेखन

विशेष - शालेय व एम. ए. के पाठ्यक्रमों में कविताएँ सम्मिलित


छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कविसम्मेलन के मंच के मंच लूटने वाले कवि, जिनके नाम से भीड़ उमड़ पड़ती थी।


लेखन - सन् 1926 से मृत्युपर्यन्त


विशेष पहचान - छत्तीसगढ़ के जनकवि


*हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में कविताएँ* 


आजादी के पूर्व राष्ट्रीयता की भावना जगाने वाली कविताएँ

आजादी के बाद नव-सृजन, नव निर्माण की कविताएँ।

इनके अलावा प्रकृति चित्रण, ग्राम्य चित्रण, चरित्र निर्माण, नैतिक शिक्षा, बाल साहित्य, क्रिया-गीत, नीतिपरक, शासकीय योजनाओं का प्रचार-प्रसार, नशा मुक्ति, अछूतोद्धार, साक्षरता, पशुपालन, स्वदेशी अपनाओ, गाँधीवादी विचारधारा की कविताएँ। 


हिन्दी की प्रतिनिधि कविताएँ - कवि और कविता,

 

"काला"

काला  अच्छा  है   , काले  में  है  अच्छाई

दुनियाँवालों ! काले की मत करो बुराई.


सुनो  ध्यान  से  काले की  गुणभरी कहानी

बड़ी    चटपटी , बड़ी  अटपटी , बड़ी  सुहानी

प्रथम पूज्य है जो गणेश जग में जन-जन का

वह   है   काला   मैल   ,   मातु   के   तन   का

गोरस   काली   गैया   का   अच्छा   होता है

पूजन   काली   मैया     का   अच्छा  होता है

चार   किसम  के  बादल   आसमान में छाते

लेकिन   काले  बादल  ही  जल बरसा जाते

काली  कोयल  की  मधुर  वाणी  मन हरती

अधिक   अन्न   पैदा  करती है काली धरती

काले   उड़दों   से   ही  तो  हम   बड़े   बनाते

स्वर्ग - लोक से जिन्हें पितरगण खाने आते

काली   लैला   की   महिमा  मजनू  से  पूछो

काली   रातों  की  गरिमा   जुगनू   से  पूछो

सकल   करम   केवल काली रातों में होता

‘राम - राम’  रटता   काले  पिंजरे  में  तोता

बनता   हीरे   जैसा  रतन, कोयला   काला

काला   लोहा    है मनुष्य  का  मित्र निराला

काली स्लेट ,पेनसिल  काली, तख्ता काला

पाता  है   इंसान   इसी   से   ज्ञान  -  उजाला

पाल रही परिवार  अनगीनित  काली स्याही

कम  है ,  इसकी जितनी भी  की जाय बड़ाई

कर  काला-बाजार  कमा लो  कस कर पैसा

बैलों    से     बेहतर   होता   है   काला   भैंसा

काला   कोट   कचहरी  में   शुभ माना जाता

‘कानून-बाज’ इसी   पर  से  पहचाना जाता

काले    की खूबियाँ   विशेष  जानना  चाहो

तो  ‘चाणक्य-चरित्र’  एक  बार  पढ़  जाओ

काले   कंचन   बाल  और  आँखें  कजरारी

पाती   है   इनको ,   किस्मत वाली ही नारी

बुढ़िया-बुढ़ऊ भी तो नित्य खिजाब लगाते

काले  बाल बताओ   किसको   नहीं सुहाते

गोरे  गालों  पर काला  तिल खूब दमकता

काले  धब्बे  वाला  चम-चम  चाँद चमकता

काला  ही   था  रचने  वाला  पावन   गीता

बिन  खटपट  के  काले  ने गोरे  को जीता

करो  प्रणाम  सदा  काली कमली वाले को

बुरा न कहना  कभी भूल कर भी काले को.


-जनकवि कोदूराम “दलित”


आजादी के आंदोलन से संबंधित आह्वान गीत - 

"पहनो केसरिया बाना" 

बढ़ो बढ़ो ए भारत वीरों ऋषियों की प्यारी संतान स्वतंत्रता के महासमर में हो जाओ सहर्ष बलिदान।

धर्म-युद्ध में मरना भी है अमर स्वर्ग-पद को पाना रणभेरी बज चुकी वीरवर पहनो केसरिया बाना।।


अछूतोद्धार - 


निज धर्म पर आरूढ़ रह कर प्रेम के व्यवहार से।

अज्ञानता देंगे मिटा हम दलित शुद्धाचार से।।

हम ऊँच हैं वे नीच हैं यह भेद उनकी भूल है।

एक ही पौधे के यदि वे फूल तो हम मूल हैं।।


जनकवि कोदूराम "दलित"


सरदार पटेल के निधन पर - 

"भगवान यह क्या हो गया"


भव्य भारतवर्ष का अनमोल हीरा खो गया।

हाय! संकट-काल में भगवान! यह क्या हो गया?

पूज्य बापू के निधन से दिल हमारा चूर था। 

शोक जन-जन में अभी छाया हुआ भरपूर था।।


हाय! फिर काली घटा गम की अचानक घिर गई। हिंदमाता पर भयानक पुनः बिजली गिर गई।। 


लौहपुरुष सुयोग्य शासक विज्ञवर सरदार को। 

सफल सेनानी हमारे देश के आधार को।।


क्रूर काल कराल सहसा छीन हमसे ले गया।

कल्पना जिसकी न थी ऐसा कठिन दुख दे गया।।


जनकवि कोदूराम "दलित"


तुलसी दास पर - 


फिर एक तुलसीदास चाहिए 


संत शिरोमणि तुलसीदास को हम प्रणाम सादर करते हैं जनकल्याण हेतु रामायण दी उसका आदर करते हैं 

की जिसने उस युग में हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा 

दी जिसने भारत के जन-जन को कर्तव्य कर्म की शिक्षा 

जो कि देश को नया जागरण नई प्रेरणा नया ग्रंथ दे सर्वोदय का सूर्य उदय कर नई व्यवस्था नया पंथ दे 

गिरे हुए हैं जो खंदक में उन्हें युक्त से ऊपर ला दे 

चढ़े हुए हैं सिर के ऊपर उन्हें युक्ति से भू पर ला दे 

भेद-भाव के खंडहर पर जो समता का संसार बसा दे सोते हैं जो उन्हें जगा दे रोते हैं जो उन्हें हँसा दे 

अपने काव्य मंत्र के द्वारा अनाचार का भूत भगा दे 

ढोंग और पाखंड दूर कर एक सुनहरा नवयुग ला दे स्वतंत्रता की पावन गंगा को जो घर-घर तक पहुँचा दे बापू जी का स्वप्न सलोना जो कर के साकार दिखा दे

पतझड़ के वृक्षों को विकसित करने को मधुमास चाहिए उसी तरह से नवभारत को फिर एक तुलसीदास चाहिए।


जनकवि कोदूराम "दलित"


व्यंग्य - 


चुनावी जंग"


(काल्पनिक - कल्पनापुर नगर पालिका चुनाव की एक झाँकी)


अब का चुनाव जंग था। इसका अजीब ढंग था।।

विरोधियों की पारटी। हो एक जंग में डटी।।


बना संयुक्त मोरचा। रण चौक चौक में मचा।।

जूझे कई महारथी। उद्दंड लट्ठ भारती।।


चुनावी चक्र चल गया। सारा नगर दहल गया।।

व्याख्यानबाजियाँ चलीं। वो जालसाजियाँ चलीं।।


होतीं सभाएँ शाम को। एकत्र कर तमाम को।।

कुछ ताल ठोंक बैठते। मूँछें गजब की ऐंठते।।


तिसमारखाँ बड़े बड़े। हो रंगमंच पर खड़े।।

थे सुबह शाम रेंकते। कीचड़ किसी पे फेंकते।।


कुछ वीर बौखला गए। निज रूप वे दिखा गए।।

पथ-भ्रष्ट हो चुके कई। सद्बुद्धि खो चुके कई।।


जो शब्द बाण छूटते। तो मौज हम थे लूटते।।

जो दीं किसी ने गालियाँ। तो पीटीं हमने तालियाँ।।


दो वीर आ के चल दिए। छाती पे मूँग दल दिए।।

कुछ मतलबी ही यार थे। रंगे हुए सियार थे।।


उनमें से एक वीर था। पद के लिए अधीर था।।

लम्पट लबार लालची। ले संग में मशालची।।


गली-गली में घूमता। पग व्होटरों के चूमता।।

इस बार फिर रहम करो। लेकिन दया न कम करो।।


इस भाँति जंग बढ़ गई। रणचंडी सर पे चढ़ गई।।

दो बैल जब बिगड़ गए। आफत में लाले पड़ गए।।


पीले सफेद झड़ गए। नीले हरे उखड़ गए।।

यूँ श्याम साँझ आ गई। रणचंडी शांति पा गई।।


चुनाव खत्म हो गया। लुटिया कई डुबो गया।।

पतंग किसी की कट गई। बाजी विकट उलट गई।।


किसी की पोल खुल गई। इज्जत तमाम धुल गई।।

मुँह की कोई खा गया। तो कोई चरमरा गया।।


पैसा भी गया गाँठ का। घर का रहा न घाट का।।

जय जयति नगर पालिके। पद लोलुपों की छालिके।।


देखा गया सदा यही। तू नेक दलों की रही।।

नया शरीर पा गई। नयी बहार आ गई।।


अब कल्पना नगर बढ़े। उत्कर्ष श्रृंग पर चढ़े।।

आहत न होवे भावना। हो पूर्ण सबकी कामना।।


रचयिता - जनकवि कोदूराम "दलित"


तब के नेता अबके नेता



तब के नेता जन-हितकारीI अब के नेता  पदवी धारीII

तब के नेता किये कमालI अब के नित पहने जयमालII


तब के नेता पटका वालेI अब के नेता लटका वाले II

तब के नेता गाँधी वादीI अब के नेता निरे विवादी II


तब के नेता काटे जेलI अब के आधे चौथी फेल II

तब के नेता गिट्टी फोड़ेंI अब के नेता कुर्सी तोड़ें II


तब के नेता डण्डे खायें I अब के नेता अण्डे खायेंII

तब के नेता लिये सुराजI अब के पूरा भोगें राज II


तब के नेता बने भिखारीI अब के नेता बनें शिकारी II

तब के एक पंथ पर चलतेI अब के नेता रंग बदलते II


तब के त्यागी,तपसी, सीधेI अब के नेता व्होट खरीदे II

तब के नेता सब ठुकरायेI अब के शाही महल बनाये II


तब के को आराम-हरामI अब के को सबसे प्रिय दामII

तब के नेता को हम मानेंI अब के नेता को पहिचानेII


जनकवि कोदूराम "दलित"


"गरीबी ! तू न यहाँ से जा"


गरीबी ! तू न यहाँ से जा

एक बात मेरी सुन ,पगली

बैठ यहाँ पर आ,

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


चली जायेगी तू यदि तो दीनों के दिन फिर जायेंगे

मजदूर-किसान सुखी बनकर गुलछर्रे खूब उड़ायेंगे

फिर कौन करेगा पूँजीपतियों ,की इतनी परवाह

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


बेमौत मरेंगे बेचारे ये सेठ,महाजन ,जमीनदार

धुल जायेगी यह चमक दमक,ठंडा होगा सब कारबार

रक्षक बनकर, भक्षक मत बन, तू इन पर जुलुम न ढा

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


सारे गरीब नंगे रहकर दु:ख पाते हों तो पाने दे

दाने-दाने के लिये तरस मर जाते हों,मर जाने दे

यदि मरे –जिये कोई तो इसमें तेरी गलती क्या

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


यदि सुबह शाम कुछ लोग व्यर्थ चिल्लाते हों ,चिल्लाने दे

“हो पूँजीवाद विनाश” आदि के नारे इन्हें लगाने दे

है अपना ही अब राज-काज –तू गीत खुशी के गा

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


यह अन्य देश नहीं, भारत है,समझाता हूँ मैं बार-बार

कर मौज यहीं रह करके तू, हिम्मत न हार, हिम्मत न हार

मैं नेक सलाह दे रहा हूँ, तू बिल्कुल मत घबरा

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


केवल धनिकों को छोड़ यहाँ पर सभी पुजारी तेरे हैं

तू भी तो  कहते आई है “ ये मेरे हैं, ये मेरे हैं “

सदियों से जिनको अपनाया है, उन्हें न अब ठुकरा

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


लाखों कुटियों के बीच खड़े आबाद रहें ये रंगमहल

आबाद रहें ये रंगरलियाँ , आबाद रहे यह चहल-पहल

तू जा के पूंजीपतियों पर, आफत नयी न ला

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


ये धनिक और निर्धन तेरे जाने से सम हो जायेंगे

तब तो परमेश्वर भी केवल समदर्शी ही कहलायेंगे

फिर कौन कहेगा “दीनबंधु”, उनको तू बतला

गरीबी तू न यहाँ से जा.....


जनकवि कोदूराम "दलित"


गोवध बन्द करो


गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो

भाई ! इस स्वतंत्र भारत में, गो-वध बंद करो.


महापुरुष उस बाल कृष्ण का, याद करो तुम गोचारण

नाम पड़ा गोपाल कृष्ण का, याद करो तुम किस कारण

माखन-चोर उसे कहते हो, याद करो तुम किस कारण

जग-सिर-मौर उसे कहते हो, याद करो तुम किस कारण.


मान रहे  हो  देव तुल्य, उससे तो तनिक डरो

गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो.


समझाया ऋषि दयानंद ने, गो-वध भारी पातक है

समझाया बापू ने गो-वध, राम राज्य का घातक है

सब जीवों को स्वतंत्रता से, जीने का पूरा हक है

नर-पिशाच अब उनकी निर्मम हत्या करते नाहक है.


सत्य-अहिंसा का अब तो, जन-जन में भाव भरो

गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो.


जिस माता के बैलों द्वारा,अन्न-वस्त्र तुम पाते हो

जिसके दही-दूध-मक्खन से, बलशाली बन जाते हो

जिसके बल पर रंगरलियाँ करते हो,मौज उड़ाते हो

अरे ! उसी माता की गर्दन पर तुम छुरी चलाते हो.


गो-हत्यारों ! चुल्लू भर पानी में तुम डूब मरो

गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो.


बहती थी जिस पुण्य भूमि पर, दही-दूध की सरितायें

आज वहीं निधड़क कटती है, दीन-हीन लाखों गायें

कटता है कठोर दिल भी, सुन उनकी दर्द भरी आहें

आज हमारी अपनी यह , सरकार जरा कुछ शरमाये.


पुण्य-शिखर पर चढ़ो, पाप के खंदक में न गिरो

गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो.


आज यहाँ के शासक, निष्ठुर म्लेच्छ यवन क्रिस्तान नहीं

आज यहाँ पर किसी और की, सत्ता नहीं - विधान नहीं

आज यहाँ  सब कुछ है अपना,पर गौ का कल्याण नहीं

गो-वध रोके कौन ! तनिक, इस ओर किसी का ध्यान नहीं


गो-रक्षा, गो - सेवा कर , भारत का कष्ट हरो

गो-वध बंद करो जल्दी अब, गो-वध बंद करो.


जनकवि कोदूराम "दलित"


रहे न कोई भूखा नंगा


पराधीन रहकर सरकस का

शेर नित्य खाता है कोड़े

पराधीन रहकर बेचारे

बोझा ढोते हाथी-घोड़े.


माता-पिता छुड़ा, पिंजरे में

रखा गया नन्हा-सा तोता

वह स्वतंत्र उड़ते तोतों को

देख सदा मन ही मन रोता.


चाहे पशु हो, चाहे पंछी

परवशता कब , किसको भायी

कहने का मतलब यह कि

‘परवशता’ होती दुख:दायी.


ऐसी दुख:दायी परवशता

मानव को कैसे भायेगी ?

औरों की दासता किसी को

राहत कैसे पहुँचायेगी ?


जो ‘गुलाम’ हैं, उन लोगों से

उनके दुख: की बातें पूछो

‘औ’ हैं जो आजाद मुल्क के

उनके सुख की बातें पूछो.


कहा सयानों ने सच ही है

आजादी से जीना अच्छा

किंतु गुलामी में जिंदा,

रहने से मर जाना है अच्छा .


रह करके गोरों की परवशता में

हम क्या-क्या न खो चुके

पर पंद्रह अगस्त सन सैंतालीस को

हम आजाद हो चुके.


यह सब अपने अमर शहीदों के

भारी जप-तप का फल है.

मिलकर रहें, देश पनपावें

तब तो फिर भविष्य उज्जवल है.


आजादी पर आँच न आवे

लहर-लहर लहराय तिरंगा

हम संकल्प आज लेवें कि

रहे न कोई भूखा – नंगा.


जनकवि कोदूराम "दलित"


श्रम का सूरज ऊगा


श्रम का सूरज उगा, बीती विकराल रात,

भागा घोर तम, भोर हो गया सुहाना है.

आलस को त्याग–अब जाग रे श्रमिक, तुझे

नये सिरे से नया भारत सिरजाना है.

तेरे बल- पौरुष की होनी है परीक्षा अब

विकट कमाल तुझे करके दिखाना है.

आया है सृजन-काल, जाग रे सृजनहार,

जाग कर्मवीर, जागा सकल जमाना है.


फावड़ा-कुदाल, घन-सब्बल सम्हाल, उठ

निरमाण-कारी, तुझे जंग जीत आना है.

फोड़ दे पहाड़, कर पाषाणों को चूर-चूर

खींच ले खनिज, माँग रहा कारखाना है.

रोक सरिता का जल, प्यासी धरती को पिला

इंद्र का बगीचा तुझे यहीं पै लगाना है.

ऊसर ‘औ’ मरू-भूमियों का सीना चीर ! तुझे

अन्न उपजाना है ‘औ’ भूखों को खिलाना है.


जाग रे भगीरथ- किसान, धरती के लाल,

आज तुझे ऋण मातृ भूमि का चुकाना है.

‘आराम-हराम’ वाले मंत्र को न भूल,तुझे

‘आजादी की गंगा’ , घर-घर पहुँचाना है.

सहकारिता से काम करने का वक्त आया

कदम मिला के अब चलना – चलाना है.

मिल जुल कर उत्पादन बढ़ाना  है ‘औ’

एक-एक दाना बाँट-बाँट कर खाना है.


जनकवि कोदूराम "दलित"


जय हिन्दी जय देवनागरी


सरल, सुबोध, सरस, अति सुंदर, लगती प्यारी-प्यारी है

देवनागरी लिपि जिसकी, सारी लिपियों से न्यारी है.

ऋषि-प्रणीत संस्कृत भाषा, जिस भाषा की महतारी है

वह हिंदी भाषा भारत के लिये परम-हितकारी है.


सहती आई जो सदियों से, संकट भारी-भारी है

जीवित रही किंतु अब तक ,उस भाषा की बलिहारी है.

तुलसी, सूर, रहीम आदि ने की जिसकी रखवाली है

वह हिंदी भाषा भारत के लिये परम –हितकारी है.


कर न सकी जिसकी समता अरबी, उर्दू, हिंदुस्तानी

बनी सर्व-सम्मति से जो सारी भाषाओं की रानी

मंद पड़ गई जिसके आगे, अंगरेजी बेचारी है

वह हिंदी भाषा भारत के लिये परम –हितकारी है.


“जय हिंदी – जय देवनागरी”-कहती जनता सारी है

आज हिंद का बच्चा –बच्चा ,जिसका बना पुजारी है

भरी अनूठे रत्नों से, जिसकी साहित्य – पिटारी है

वह हिंदी भाषा भारत के लिये परम –हितकारी है.


जनकवि कोदूराम "दलित"


गुरु का है सर्वोच्च स्थान


गुरु, पितु, मातु, सुजन,भगवान, 

ये पाँचों हैं पूज्य महान

गुरु  का  है  सर्वोच्च  स्थान , 

गुरु है सकल गुणों की खान.



कर अज्ञान तिमिर का नाश, 

दिखलाता यह ज्ञान-प्रकाश

रखता  गुरु  को  सदा  प्रसन्न , 

बनता  वही  देश सम्पन्न.



कबिरा, तुलसी, संत-गुसाईं, 

सबने गुरु की महिमा गाई

बड़ा  चतुर  है यह कारीगर , 

गढ़ता गाँधी और जवाहर.



आया पावन पाँच-सितम्बर ,

श्रद्धापूर्वक हम सब मिलकर

गुरु की महिमा गावें आज , 

“ शिक्षक-दिवस ” मनावें आज.



एकलव्य – आरुणि की नाईं , 

गुरु के शिष्य बने हम भाई

देता  है   गुरु विद्या – दान , 

करें  सदा  इसका  सम्मान.



अन्न –वस्त्र –धन दें भरपूर , 

गुरु  के  कष्ट  करें  हम  दूर

मिल जुलकर हम शिष्य–सुजान ,

करें राष्ट्र का नवनिर्माण.


जनकवि कोदूराम "दलित"


कवि और कविता



कवि पैदा होकर आता है

होती कवियों की खान नहीं

कविता करना आसान नहीं.


कविता कर सके सूर तब , जब अपनी दोनों आँखें फोड़ी

कविता कर सके संत तुलसी , जब अपनी प्रिय रत्ना छोड़ी

कविता कर सके कबीर कि जब झीनी-झीनी चादर ओढ़ी

दे गये जगत को अमर काव्य , जब त्याग-तपस्या की थोड़ी.


युग-युग तक कभी भूल सकता

मानव इनका एहसान नहीं

कविता करना आसान नहीं.


वह तरकस क्या ? जिसमें कि एक भी, जन-मन भेदी बाण नहीं

वह कोठी भूसा – भरी व्यर्थ , जिसमें दो दाना धान नहीं

उसको सागर कहना फिजूल , जिसमें लहरें – तूफान नहीं

वह कविता क्या जिसमें, युग-परिवर्तन-बल उच्च उड़ान नहीं.


वह कवि क्या जिसे कि

सत्यम् शिवम् सुंदरम् का हो भान नहीं

कविता करना आसान नहीं.


जनकवि कोदूराम "दलित"