Sunday 10 May 2020

दलित जी के प्रिय शिष्य : दानेश्वर शर्मा


"आज वयोवृद्ध कवि दानेश्वर शर्मा जी का 89 वाँ जन्म-दिन"

बहुत-बहुत बधाइयों के साथ ही उनके छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन तपत कुरु भइ तपत कुरु" में प्रकाशित आत्म-कथ्य के कुछ महत्वपूर्ण अंश……

दानेश्वर शर्मा - मेरी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है। दुर्ग जिले (छत्तीसगढ़) के एक गांव मेड़ेसरा में अनंत चतुर्दशी (सितंबर) सन 1931 में जन्म हुआ किंतु संभवतः शालेय प्रवेश के लिए आयु की बाध्यता के कारण जन्म तिथि 10 मई 1931 दर्ज की गई। मेरे पिता पंडित गंगाप्रसाद द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे संस्कृतज्ञों से संस्कृत में ही वार्तालाप करते थे। जब महात्मा गांधी दूसरी बार 6 दिनों के लिए रायपुर आए तो पिताश्री उस समय संस्कृत पाठशाला रायपुर के छात्र थे। महात्मा गांधी के साथ प्रतिदिन प्रातः 4:00 बजे गीता पाठ करने के लिए पंडित रविशंकर शुक्ल (पुराने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री) ने संस्कृत पाठशाला के प्राचार्य पंडित विश्वनाथ प्रसाद पांडेय से शुद्ध उच्चारण वाला एक छात्र भेजने को कहा। पांडेय जी ने पिताश्री को भेजा। गांधी जी ने उनके उच्चारण की शुद्धता से प्रसन्न होकर प्रशंसा और शुभकामना व्यक्त की।

ग्राम लिमतरा, दुर्ग जिला में भी हमारी जमीन थी। विद्या अध्ययन के पश्चात पिताश्री को वहीं की काश्तकारी करनी पड़ी। साथ ही वेश्रीमद्भागवत महापुराण पर प्रवचन भी करते थे। इस क्षेत्र में उनकी ख्याति छत्तीसगढ़ से बाहर भी हो ग।ई पूजनीय मां इंदिरा देवी तथा ग्राम लिमतरा के सांस्कृतिक परिवेश से मेरे शिशु मन को संस्कार मिला तथा पिताश्री से संस्कृत की पृष्ठभूमि अप्रयास मिल गई।  ग्राम लिमतरा में उस समय कोई स्कूल नहीं था, अतः मुझे पढ़ने के लिए पास के गांव नंदौरी के स्कूल तक पैदल जाना पड़ता था। वह भी नाला लाँघ कर। पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई मैंने नंदौरी स्कूल में की। इस बीच पिताश्री "शिव संस्कृत पाठशाला, दुर्ग" में प्रधानाचार्य हो गए। मां-बाप के साथ मैं भी दुर्ग आया और शीतला पारा प्राथमिक शाला (अब तिलक शालाला) में तीसरी कक्षा का छात्र हो गया। चौथी कक्षा में छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध कवि श्री कोदूराम "दलित" कक्षा शिक्षक के रूप में मिले। यह मेरे जीवन का निर्णायक प्रसंग बना।

"गुरु" - श्री कोदूराम दलित थे तो केवल सातवीं पास तथा नॉर्मल स्कूल प्रशिक्षित शिक्षक, लेकिन उनका ज्ञान भंडार आश्चर्यजनक था। व्याकरण की गलती में महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक की भी कलम पकड़ते थे। अनुस्वार, अनुनासिक,  विराम, अर्धविराम, छन्द आदि की शिक्षा पाने वाला उनका छात्र पक्के गुरु का पक्का चेला बन जाता था।

तीर्थ नहाए एक फल,  संत मिले फल चार।
सदगुरु मिले अनंत फल, कहे कबीर विचार।।

एक बार गुरु जी ने मुझे रामलीला में लक्ष्मण का अभिनय करते देख लिया। दूसरे दिन स्कूल पहुंचा तो उन्होंने पूछा - "अरे दानेश्वर! कल तू रामलीला में लक्ष्मण बना था क्या रे?" मैंने कहा- "हां गुरुजी"। गुरुजी ने कहा - "ठीक! अच्छा सुना दो वह लक्ष्मण वाला छन्द, जो तू  परशुराम के सामने कल बोल रहा था।"  गुरु जी ने मुझे टेबल पर खड़ा कर दिया। अन्य छात्रों से कहा - "सुनो" तथा मुझसे कहा "बोलो"।  मैं शुरू हो गया - 

जो ज्यादा मीठा होता है, वह अपना नाश कराता है 
मीठे गन्ने को देखो तो, कोल्हू में पेरा जाता है 
भाई ने मीठे वचन कहे इसलिए क्रोध चढ़ आया है
सबसे पहले हम बोल उठे इसलिए चोर ठहराया है 
अच्छा, अपराधी हम ही सही हमने ही जहर निचोड़ा है 
जो कुछ करना हो करें आप, शिव धनुष हम ही ने तोड़ा है। 

गुरुजी ने ताली बजाई तो अन्य छात्रों ने भी। छात्रों को निर्भीक बनाने तथा उसमें मंचीय प्रतिभा विकसित करने का यह गुरु जी का अपना तरीका था। छात्रों तथा आम लोगों में राष्ट्रीयता का भाव जगाने के लिए भी गुरुजी के उपक्रम थे। उदाहरणार्थ, एक यह कि छात्रों का रावत नाचा दल बनाते थे। हर छात्र को स्वरचित रावत दोहा लिख कर देते थे और कण्ठाग्र याद कराते थे। दोहे राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होते हुए भी मनोरंजक एवं असरकारी होते थे - 

सत्य अहिंसा के राम बान
गांधीजी मारिस तान-तान।

गांधीजी के छेरी दिनभर, मे मे में नरियाय रे 
ओकर दूध ल पी के भइया, बुढ़वा जवान हो जाए रे।।

दुर्ग से विद्यालयीन और रायपुर से महाविद्यालयीन शिक्षा पूरी करके सन 1955 में वकालत करने के लिए मैं पुनः दुर्ग लौटा। तब तक हिंदी में कविताएं लिखना प्रारंभ कर चुका था, अतः मेरी गिनती दुर्ग के कवियों में होने लगी। यह  संयोग था कि सन 1958 में नागपुर आकाशवाणी केंद्र ने "साहित्य सौरभ" कार्यक्रम के अंतर्गत एक कवि गोष्ठी में दलित जी को और मुझे एक साथ आमंत्रित किया।

दलित भी चाहते थे कि मैं हिंदी के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी में भी कविता लिखूँ। वे बार-बार कहते तो मैं सिर झुका कर संक्षिप्त-सा का उत्तर देता था -  "नइ बनय गुरुजी"।  वे कहते - "सब बनही जी,  कोशिश तो करव"।  गुरुजी के बार बार के आदेशात्मक आग्रह के कारण मैं सोचने लगा कि किस विषय पर छत्तीसगढ़ी कविता लिखूँ। अचानक मुझे एक श्लोक याद आया - 

काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्र रम्या शकुंतला।
तत्राs पि चतुर्थकः, तत्र श्लोक चतुष्टयम्।।

अर्थात काव्यों में रमणीय नाटक-काव्य होता है। नाटक-काव्यों में सबसे सुंदर अभिज्ञान शाकुंतलम् (कालिदास रचित) है। इस नाटक में सबसे सुंदर अंक चौथा अंक है।इस अंक में भी सबसे सुंदर चार श्लोक हैं (जो ऋषि कण्व अपनी पालित पुत्री शकुंतला को विदाई देते समय कहते हैं)। मुझे लगा की बेटी की विदाई ही काव्य लेखन का सर्वोत्तम विषय है और मैंने छत्तीसगढ़ी कविता लिख ली - 

कइसे के बेटी मैं  तोला ओ भेजंव
पसरा के मोती ल दहरा म फेंकव।

इस कविता में मां को प्रति माह बेटी की याद किन प्रतीकों के माध्यम से आएगी, इसका चित्रण है। गुरु जी ने सुना तो बहुत प्रसन्न हुए और भरपूर आशीष दिया।

"आशीष फला" -  एक बार महात्मा गांधी हाई स्कूल में आयोजित कवि सम्मेलन में मैंने इसे छत्तीसगढ़ी कविता का प्रयोग किया और लोकधुन में गाया। संयोग से श्रोताओं में हिज़ मास्टर्स वायस ग्रामोफोन कंपनी, कोलकाता के प्रतिनिधि, श्री रफ़ीक जी बैठे हुए थे। प्रयोग जम गया। खूब वाहवाही मिली। दूसरे दिन श्री रफीक ने मुझसे संपर्क किया और कहा कि यह कविता हिज़ मास्टर्स वायस के लिए गा दूँ। मैंने असमर्थता जताते हुए कहा कि मुझे संगीत का व्याकरण नहीं आता। उन्होंने कहा कि आपका सुरताल ठीक है हम आर्केस्ट्रा की व्यवस्था अपने स्टूडियो में कर देंगे और सब ठीक हो जाएगा। फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई मेरे बार-बार इंकार करने पर अंततः रफीक साहब ने कहा कि कविता दे दीजिए हम अपने स्टाफ आर्टिस्ट्स राधा रानी से गवा लेंगे। मैंने पूछा कि क्या राधा रानी छत्तीसगढ़ी का शुद्ध उच्चारण कर पाएंगी? इस पर वह भी चुप हो गए तो मैंने सुझाया कि गायक गायिका मैं ढूंढ लूंगा और आपको सूचित करुंगा। वे राजी हो गए। 

लेकिन गायक गायिका मिलना साधारण बात नहीं थी।यह बात सन 1965 की है। उन दिनों छत्तीसगढ़ी गीत गाने वाली कोई संगीत समिति या सांस्कृतिक संस्था नहीं थी। चंदैनी गोंदा का भी जन्म नहीं हुआ था। अतः छत्तीसगढ़ी में गाने वाले केवल नाचा, माता सेवा या भजन पार्टी के ही कुछ लोग थे और ल वह भी बद्दी आवाज में "राधा हसीना चली जा रही है" टाइप गीत गाते थे। मैं कलाकार ढूंढ़ते ढूंढ़ते परेशान हो गया। सन 1959 से भिलाई इस्पात संयंत्र की नौकरी में आ चुका था। अतः सन 1965 में रहने के लिए दुर्ग से सेक्टर 10 भिलाई नगर आ गया। वहां संजोग से मेरी भेंट पड़ोस में रहने वाली एक स्वर कोकिला श्रीमती मंजुला दासगुप्ता के हो गई। पता चला कि वे राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद तथा प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निवास स्थान में गाने पर अतिरिक्त एक बंगला फिल्मों में भी पार्श्व गायन कर चुकी हैं। मैंने एचएमवी के लिए छत्तीसगढ़ी गीत गाने का आग्रह किया तो उन्होंने तत्काल राजी होते हुए कहा कि उच्चारण और धुन सिखा दीजिए। मैंने सिखा दिया। मंजुला जी के स्वर में एच एम वी ने मेरे चार गीत रिकॉर्ड किए - (1) कइसे के बेटी मैं तोला वो भेजंव (2) चल मोर जँवारा मड़ई देखे जाबो (3) मइके ल देखे होगे साल गा, भइया तुमन निच्चत बिसार देव (4)तपत कुरु भइ तपत कुरु, बोल रे मिट्ठू तपत कुरु।

हिज़ मास्टर्स वायस के ग्रामोफोन रिकार्ड बाजार में आते ही चारों गीत लोकप्रिय हो गए। रायपुर आकाशवाणी केंद्र से उन गीतों का बार-बार प्रसारण होने लगा। रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा एम ए हिंदी के छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए निर्धारित पाठ्यपुस्तक "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन" में मेरी दो कविताएं संगृहित हो गई। कवि सम्मेलनों में मेरी मांग बढ़ गई। पत्र पत्रिकाएं छत्तीसगढ़ी कविताएं मांगने लगी। छत्तीसगढ़ी कविता लिखने वालों की संख्या बढ़ने लगी। 

सरगम रिकॉर्ड से बनारस के निर्माता निर्देशक डॉ अरोरा ने एक बार घर आकर कहा कि हम लोग लोक-भाषा के गीतों का ही ग्रामोफोन रिकार्ड बनाते हैं। हमारे पास छत्तीसगढ़ी गीतों के रिकॉर्ड नहीं हैं अतः आप अपने गीत और कलाकार दीजिए। मैं श्री रविशंकर शुक्ला, श्रीमती संतोष झांझी और कुछ अन्य गायक कलाकारों को लेकर बनारस गया। रिकॉर्ड निकले लेकिन कंपनी ने उत्तर प्रदेश और बिहार में ही बेच डाले। मध्यप्रदेश में बहुत कम प्रतियां आई। 

इसके बाद मुंबई के म्यूजिक इंडिया (पालीडोर) तथा वीनस रिकार्ड ने भी क्रमशः मेरे गीतों पर ग्रामोफोन रिकार्ड व कैसेट निकाले। अब तक छत्तीसगढ़ी में गाने वाले अनेक कलाकार प्रकाश में आ चुके थे। अतः मुझ पर दबाव पड़ा कि मंजुला दासगुप्ता के बदले छत्तीसगढ़ी में अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध उच्चारण वाले कलाकारों को अवसर देना चाहिए। अतः मुझे स्वीकार करना पड़ा और म्यूजिक इंडिया तथा वीनस रिकॉर्ड के लिए बैतल राम साहू, अमृता,  डॉ. मायारानी शुक्ला, अल्पना गुप्ता,  कुलेश्वर ताम्रकार,  रजनी रजक आदि कलाकारों ने खूब समां बांधा।  रिकार्ड व कैसेट हाथों-हाथ बिक गए। प्रोफेसर डॉ नरेंद्रदेव वर्मा ने शिकागो विश्वविद्यालय के लिए लिखित " रिवोलुशनिज्म इन छत्तीसगढ़ी पोएट्री"  में मेरी चर्चा की। छत्तीसगढ़ी के क्षेत्र में उपलब्धियों की चर्चा नहीं करते हुए अंततः अपने गुरु स्वर्गीय कोदूराम दलित के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं कि उनकी आज्ञा और कृपा के कारण छत्तीसगढ़ी की चित्रोत्पला गंगा में अवगाहन करने का अवसर मिला। 

(सम्पूर्ण आत्म-कथ्य दानेश्वर शर्मा जी की किताब तपत कुरु भइ तपत कुरु में पढ़ा जा सकता है। गूगल वायस टाइपिंग का प्रयोग करने के कारण कई स्थानों पर अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार दिखाई देगा, इसे टंकण त्रुटि मानते हुए स्वीकार करने का आग्रह है)

पंडित दानेश्वर शर्मा जी के साहित्य में दीर्घकालीन अवदान को देखते हुए दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति, दुर्ग ने गत वर्ष उनके नागरिक अभिनंदन समारोह का भव्य आयोजन किया था। 

संकलन - अरुण कुमार निगम
अध्यक्ष, दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति, दुर्ग

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